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अ॒ग्निं दू॒तं प्रति॒ यदब्र॑वीत॒नाश्व॒: कर्त्वो॒ रथ॑ उ॒तेह कर्त्व॑:। धे॒नुः कर्त्वा॑ युव॒शा कर्त्वा॒ द्वा तानि॑ भ्रात॒रनु॑ वः कृ॒त्व्येम॑सि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agniṁ dūtam prati yad abravītanāśvaḥ kartvo ratha uteha kartvaḥ | dhenuḥ kartvā yuvaśā kartvā dvā tāni bhrātar anu vaḥ kṛtvy emasi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निम्। दू॒तम्। प्रति॑। यत्। अब्र॑वीतन। अश्वः॑। कर्त्वः॑। रथः॑। उ॒त। इ॒ह। कर्त्वः॑। धे॒नुः। कर्त्वा॑। यु॒व॒शा। कर्त्वा॑। द्वा। तानि॑। भ्रा॒तः॒। अनु॑। वः॒। कृ॒त्वी। आ। इ॒म॒सि॒ ॥ १.१६१.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:161» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (भ्रातः) बन्धु विद्वान् ! (यत्) जो (अश्वः) शीघ्रगामी (कर्त्त्वः) करने योग्य अर्थात् कलायन्त्रादि (से) सिद्ध होनेवाला नानाविध शिल्पक्रियाजन्य पदार्थ (उत) अथवा (इह) यहाँ (रथः) रमण करने का साधन (कर्त्त्वः) करने योग्य विमान आदि यान है उसको (अग्निम्) बिजुली आदि (दूतम्) दूत कर्मकारी अग्नि के (प्रति) प्रति जो (अब्रवीतन) कहे, उसके उपदेश से जो (कर्त्त्वा) करने योग्य (धेनुः) वाणी है वा जो (कर्त्त्वा) करने योग्य (युवशा) मिले-अनमिले व्यवहारों से विस्तृत काम है वा जो अग्नि और वाणी (द्वा) दो हैं (तानि) उन सबको (वः) तुम्हारी उत्तेजना से सिद्ध (कृत्वी) कर हम लोग (अनु, सा इमसि) अनुक्रम से उक्त पदार्थों को प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - जो जिसके लिये सत्य विद्या को कहे और अग्नि आदि से कर्त्तव्य का उपदेश करे, वह उसको बन्धु के समान जाने और वह करने योग्य कामों को सिद्ध कर सके ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे भ्रातर्विद्वन् यद्योऽश्वः कर्त्त्व उतेह रथः कर्त्त्वोऽस्ति तमग्निं दूतं प्रति योऽब्रवीतन तदुपदेशेन या कर्त्त्वा धेनुरस्ति यानि कर्त्त्वा युवशा सन्ति येऽग्निवाचौ द्वा स्तस्तानि वः सिद्धानि कृत्वी वयमन्वेमसि ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निम्) विद्युदादिम् (दूतम्) यो दुनोति तम् (प्रति) (यत्) यः (अब्रवीतन) ब्रूयात् (अश्वः) आशुगामी (कर्त्त्वः) कर्त्तुमर्हः। अत्र सर्वत्र कृत्यार्थे त्वन् प्रत्ययः। (रथः) रमणसाधनः (उत) अपि (इह) (कर्त्त्वः) कर्त्तुं योग्यः (धेनुः) वाणी (कर्त्त्वा) कर्त्तुं योग्या (युवशा) युवैर्मिश्रिताऽमिश्रितैस्तद्वत्कृतानि विस्तृतानि (कर्त्त्वा) कर्त्तव्यानि (द्वा) द्वौ (तानि) (भ्रातः) बन्धो (अनु) (वः) युष्माकं सकाशात् (कृत्त्वी) कृत्वा। अत्र स्नात्व्यादयश्चेति निपातितम्। (आ) (इमसि) प्राप्नुमः ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - यो यस्मै सत्यां विद्यां ब्रूयात्। अग्न्यादिकृत्यामादिशेच्च स तं बन्धुवद्विजानीयात् स कर्त्तव्यानि कार्याणि साधितुं शक्नुयात् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो ज्याला सत्य विद्या सांगतो व अग्नी इत्यादी द्वारे कर्तव्याचा उपदेश करतो तो बंधूसारखा जाणावा. तो कर्तव्य कर्म सिद्ध करू शकतो. ॥ ३ ॥